"मजदूर" "मजबूर"

“वो” आये थे अपने घर से दूर, अपने घर को चलाने को,
आज वही “मजदूर” “मजबूर” हुआ, अपने घर वापस जाने को।
जिसने औरो का घर बनाया, आज खुद “बेघर” हो बैठा है,
जिसने औरो को खाना खिलाया, आज खुद “भूखे” पेट सोता है।
यहां भी उसे इतना ना मिलता था, बस ख़ुशी थी इससे घर चलता था,
आज बच्चा उससे पूछ रहा, पापा क्या लाए खाने को?
आज वही “मजदूर” “मजबूर” हुआ, उसको भूखे पेट सुलाने को।
“प्रदूषण” तो इनकी देन नहीं, ना ही ये “बम” बनाते हैं,
“जैविक हथियार” तो छोड़ ही दो, ये कौन सा शौक सजाते है,
पर सज़ा इन्हीं को मिलती है, जब बात जरा सी बिगड़ती है,
जैसे सारे “पाप” इन्हीं के थे, हम तो बैठे “स्वर्ग” जाने को,
आज वही “मजदूर” “मजबूर” हुआ, बिन किए “पापों” का बोझ उठाने को।
आज वही “मजदूर” “मजबूर” हुआ, अपने घर वापस जाने को।।

Suhani Shrivastava

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