मुकम्मल
मुकम्मल

कैसी इबारत है मेरी,की जैसे अब तन्हा ही रहना है और अब मुकम्मल हरगिज़ न होगी!!
मिलकर भी सबसे मुकम्मल न हुआ मैं कभी और जाते-जाते अधूरा उन्हें भी तो कर ही दिया है कहीं न कहीं!!

अब कोई रवायत मुझपे साक़ी तो नही,न दोस्ती की- न इश्क़ की…जैसे अब मुझे दोहरी उलझन तो न होगी !!
ख्यालों के परत खोल के अब इस बार खुद की खुद से पुरज़ोर आज़माइश होगी!

लड़ना भी होगा मुझे अब अपने ही जज़्बातों से, जैसे इश्क़ की मीनारों से मेरी जंग ज़रूर होगी!!
सब तन्हा सा लगता है और पसंद है कमरे में बंद रहना, जैसे अब बस इन अँधेरो से ही मेरी गुफ्तगूं होगी!!

दो लफ्ज़ ना-क़ाबिल क्या हुआ मैं, मुझे उसने भी दो टूक कह दिया, अब जैसे इनको भी मुझसे मोहब्बत तो न होगी!!
इश्क़ क़ासिद ही रहा मुझपे हर बार की तरह, इस बार भी शायद मुलाक़ात मेरी मुझसे काफ़िर होगी!!

मोहब्बत के पैमानों में तन्हा ही जाम मेरा रहा, शायद इस बार भी उस खुदा से मेरी मुलाक़ात न होगी!!
“दिलाफ़रोज़ इश्क़” में मैं हर बार खोया रहा, इस बार देखना “इश्क़” से “दिलफरेब मेहदी” की मुलाक़ात होगी!!

Syed Mehdi

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