Musafir || मुसाफिर
Musafir || मुसाफिर

किसी ने यूही उसे पुछा की, बीते वक़्त के साथ इतना कैसे बदल गये तुम??
उसने जवाब दिया,

इस बदलाव की वजह तो, अनगीनत लोग है,
उन्ही लोगों की बुनियाद से, हम यहा तक पहुंचे है,
अब नजरे नही डरती, उन अंजान वजहों से,
आंखे मिलाकर बात करती है, किसी भी मुश्कील से…

कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना,
बीते वक़्त के साथ, सिख जाते है नजरअंदाज करना,
खुद कुछ अच्छा करने की नही सोंचते है,
गलत बाते कैसी बनानी है, ये अच्छे से जानते है…

कुछ बातों को पीछे छोडकर, हम आगे बढ जाते है,
बडी मुश्कील से उनसे, खुद ही उभर पाते है,
लोगों का क्या है जनाब, वो नाम रखने के लिए ही होते है,
उन्हे कौन समझाए, किन गलियों से हम गुजरे है…

खैर, कोई शिकायते नही इस जमाने के लिये,
उसकी रिवायते है, सिर्फ दिखाने के लिये,
जो कहते है, बडे जालीम है हम,
क्या बताये उन्हे, जैसी दुनिया वैसे हो गये हम…

क्या ही फ़र्क़ पडता है,
असल मे हम कैसे है,
किसी के लिए अच्छे, किसी के लिए बुरे है,
जिसने जैसी राय बना ली, उसके लिए वैसे है…

अब ये नही सोचते, की लोग क्या कहते है,
हौसलों से बने राह पर, आगे बढते रहते है,
अच्छी बात है, जब लोग पीठपीछे बोलते है,
हम सही रास्ते पर चल रहे, इसकी गवाही दे जाते है…

कभी कभी लगता है, हम कुछ भी ना कहे,
और लोग ना बोले ही सुने,
क्योंकी, कही हुई बातों से गेहरे,
लिखे हुए अल्फाझ होते है…

Nilima

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